{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह= मेघनाद वध / सुमित्रानंदन पंत
}}
मैं तो उसे भाषे, क्रूर मानता हूँ सर्वथा<br>दु:ख तुम्हें देने के लिए है गढ़ी जिसने <br> मित्राक्षर-बेड़ी। हा ! पहनने से इसने <br>दी है सदा कोमल पदों में कितनी व्यथा !<br>जल उठता है यह सोच मेरा जी प्रिये, <br>भाव-रत्न-हीन था क्या दीन उसका हिया,<br>झूठे ही सुहाग में भुलाने भर के लिए <br>उसने तुम्हें जो यह तुच्छ गहना दिया ?<br>रँगने से लाभ क्या है फुल्ल शतदल के ?<br>चन्द्रकला-उज्जवला है आप नीलाकाश में। <br>मन्त्रपूत करने से लाभ गंगा-जल के ? <br>गन्ध ढालना है व्यर्थ पारिजात-वास में। <br>प्रतिमा प्रकृति की-सी कविता असल के <br>
चीनी वधू-तुल्य पद क्यों हों लौह-पाश में ?