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Kavita Kosh से
बर्फ़ अपाहिज़ की तरह, करती थी बर्ताव।
देख धूप ने दे दिए, उसे हज़ारों पाँव।।
सोच रहा हूँ फेंक दूँ, घर से सभी उसूल।
पड़े-पड़े ये खा रहे हैं, बरसों से धूल।।
एक रात तक का नहीं, सह सकता ये बोझ।
छुप जाता है इसलिए, सूर्य कहीं हर रोज़।।
ना मुझमें मकरन्द है. ना हीं रंग-सुगन्ध।
लिखे तितलियों ने मगर, मुझ पर कई निबन्ध।।
चलो, सभी मिलकर करें, कारण आज तलाश।
नफ़रत क्यों करने लगा, धरती से आकाश।।
रत्ती भर खोटी हुई, तेरी अगर निगाह।
नहीं कभी तुझको नज़र, आएगा अल्लाह।।
देता है अभिमान को, रोज़ नया आकार।
वो पानी पाता नहीं, कभी नदी का प्यार।।
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