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|संग्रह=अपूर्वा / रामनरेश पाठक
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<poem>
रात भींग गयी है,
भूखे स्तनों से सटी बच्ची
अफार रही है
स्टीमर केधुएं से लगकर
भिखारी की आँख उठंग गयी है
रात भींग गयी है

नीली रौशनी में
सेठ की मोती तिमंजिली तोंद से सटी
जहूरन मनीबेग निकाल रही है,
मजूरों की बस्ती में रोटी मजूरिनी की
सूखी पिंडलियों पर हल्दी,चूना, प्याज का
लेप चढ़ गया है

क्लुबों में बड़ी-बड़ी
बाईंसवीं सदी की
कलि, लिपि, पुती, बनी, ठनी
बासी कढ़ी-प्रौढाएं, छोकरियाँ
चल चुकी हैं
रात भींग गयी है
सेंध पद रहे हैं
सिपाही बरान कोट में घुस कर
सो गया है
सिनेमा घर, पटना मार्किट
स्पन्दन्हीन, जीवनहीन काठ हो गया है
नसें झुक गयीं हैं
रात भींग गयी है.
</poem>
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