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परिंदे / अर्चना कुमारी

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|रचनाकार=अर्चना कुमारी
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|संग्रह=पत्थरों के देश में देवता नहीं होते / अर्चना कुमारी
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<poem>
आवाजों के परिंदे
उड़ते भी तो कहां जाते
किसी मुंडेर पर रखे
अल्फाज़ के दाने चुगते
और पीते अहसास का पानी

छोटे से दिल में
पिंजरे का डर लेकर
ठहरने से पहले चल देते
कोई मासूम बच्चा
हाथ बढ़ाता
रुक जाता

परिंदों की उड़ानों से ज्यादा
फडफ़ड़ाहट से ईश्क करने वाली लड़की
जख्मों को धूप में सुखाती
पुराने ख़्वाबों का हरा करती
लाल होना किसी ख़्वाब का
परिंदों की मौत होती है

पाजेब की छनछन मधुर
और घुंघरुओं का टूट जाना
कि जैसे दिल धड़कना
और दिल का टूट जाना

सदियों से शिकायतें नाम रहीं
उल्फत के
झुकी पलकें गुनाहगार रहीं
किसी मौसम का
पतझड़ों में बरसकर
टहनियां हरा करती
कि आकर ठहर जाएं
मुंडेरों के उदास पंछी

बिखरे परों का ढेर लेकर
मुस्कुराना
कोई इल्जाम दे जाए
फिर गुनगुनाना
दुआ के दरों से
खाली लौट आना

चुप हैं परिन्दे
और आसमां तक कोई इल्जाम है।
</poem>
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