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08:42, 27 अगस्त 2017 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अर्चना कुमारी
|अनुवादक=
|संग्रह=पत्थरों के देश में देवता नहीं होते / अर्चना कुमारी
}}
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<poem>
जो पूछे जा रहे
वो सवाल लावारिस हैं
और नाजायज होते हैं
लावारिस बच्चों के मां-बाप
मजबूरियों की फाकाकशी करते हुए
रोटी का स्वाद लेना
चांद में बैठी बुढिया नानी की कहानी
जितना सरल नहीं होता
सरल यह भी नहीं होता
कि भीख मांगते बच्चों को दुत्कारा जाए
घर से कहीं छोटा है मन आजकल
भंवों पर चढ़ बैठी शंकाएं
पैरों की रफ्तार बढाती हैं
पीठ देर तक सनसनाती रहती है
दूर तक पीछा करती बद्दुआओं से
कान बजता है ठनठन
मंदिर के बाहर कतार में बैठे लोग
प्रतीक्षा करते हैं
मंदिर के अन्दर के कातर संभ्रांत याचकों की
एक लेकर भरता है
दिन का पेट
एक देकर भरता है
रातों की आंखें
खोज रही हूं कुछ पते
लापता इंसानियत के
जहां गर्त में बैठा हुआ
मेरा भी मन है।
</poem>
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