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|संग्रह=पत्थरों के देश में देवता नहीं होते / अर्चना कुमारी
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<poem>
खुद से ही
डरने लगी हूं आजकल
कि न जाने कब
मोहब्बत मांगू तो
जारी हो कोई अदालती फरमान
दस्तावेजों में जिक्र हो
मेरी नादानियों का
मेरी मासूमियत करार कर दी जाए
गुनाहगार
कि कब बचपने को बेवकूफी
कह दिया जाएगा
और कह दिया जाएगा शातिर मुझे
तल्ख भाषाएं
बोलता हुआ अजनबी
कभी अपना रहा है शायद
ये आखिरी गुनाह मेरा
जिस पर चीख रहे हो तुम
मुझे डर लगता है
सन्नाटों से
चीखों से
चुप्पी से
तल्खियों
प्रेम से...।
</poem>
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