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07:05, 9 सितम्बर 2017
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रात ने जब-जब पुकारा क्रुद्ध निहाई से चिंगारी, थे कहाँ तुमछूट रही है भोर में दीपक जलाने से जुगिनी रानी जीवन लोहा मिला क्या ?कूट रही है।
जब किनारे पर गले नेह छिपा कर रख लेती, गाड़ी के नीचे प्यासे फँसे थे दुलराती किलकारी अपनी, आँखें मींचे मन मुताविक तंज कस धारे हँसे थेशुष्क होंठों ने पुकारा करती घन से वार बनाती, मुदरी छल्ला थे कहाँ तुम गठी –गठी काया तर, चिपका गीला पल्ला भीगने पर जल पिलाने खिले–खिले मुखड़े से मिला क्या ?लाली फूट रही है।
चैन की आगोश संकल्पों को बाँध गाँठ में भी , आग जलाती रतजगे थे सपने कूट –कूटकर फिर, तलवार बनाती स्वप्न नगरी में घने पहरे लगे थे नींद ने जब भी पुकारा घास काटती दुक्खों की, धीरे मुस्काती थे कहाँ तुम पूरे कुनवे का बोझा वह, स्वयं उठाती सो गए उनको सुलाने चपल निगाहों सेवह मिला क्या ?खुशियाँ लूट रही है।
भोग छप्पन थे मगर दृष्टिकोण दिन से ले-लेकर, साँझ सजाती ताले जड़े थे निष्ठाओं की पायल से, झंकार लगाती कौन किसको पूछता चाम धौकनी धौंक, उगाती विरल उजालेसब ही बड़े थे और उगाती जीने के ,औजार निराले भूख ने जब-जब पुकारा थे कहाँ तुम खा चुके उनको खिलाने से अकड़ मुश्किलों की मिला क्या ? किरचों में टूट रही है।
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