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बारिश / निधि सक्सेना

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क्षणभंगुर और नाज़ुक
बगैर थमे झरती बारिश की बूंदे
अक्सर बाँध लेती हैं वक्त
कि भोर, एकपहर, दोपहर, तीनपहर, सांझ
सब एक सरके नज़र आते हैं
बून्द पर बून्द
पुलक पर पुलक
ठहर गया है वक्त
आगे बढ़ने से इंकार कर रहा है

बारिश की लोरी सी महक में
देर तक सोते रहने की तलब है
न जल्द जगाने को सूरज है
न रात देर तक अगोरता चाँद
बस फलक भर बादल है
और बारिशें बहाना है
जिन्हें दिल ढूंढता था
शायद यही वो फुर्सत के रात दिन हैं.
</poem>
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