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<poem>
फुटपाथ के एक कोने में अरसे से पड़ा वह बूढा
रोटी की फिलासफी का शोध छात्र सा था
वह था जो रोज रोटी की बात करता था
सपनों में तस्वीरें भी उसकी गोल रोटी की होती थी
उसके इर्द गिर्द बिखरे पन्नों में
नारे भी कई थे लिखे हुए रोटियों पर
उसके लिखे हुए आड़ी तिरक्षी लकीरों में
भूख का ही प्रमेय और उपप्रमेय सिद्ध होता था
पर आज कुछ उल्टा हुआ था
भूख से उथले पेट
उल्टा आँखे तरेर टकटकी लगाए
चंद्रमा की परछाई में रोटी का परावर्तन ढूंढ़
फर्श पे दो शब्द उकेरे थे उसने "रोटी"
शायद रोटी और भूख के प्रमेय में
मरने से पहले लिखे दो अक्षर
उसी रोटी की निर्लज्ज आहुति थी वहां !
</poem>
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