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<poem>
उगने के साथ ही
ढ़लकर डूब जाती है शाम
और ढ़ल जाता है सूर्य का यौवन भी
इस यौवनी पकी धूप में
अदृश्य हो विलीन हो जाती है
चाँद का मुखड़ा लिए ओस की बूंदें
तब रंग बदल लेती है ऋतुएँ
और साँझ के चूल्हे पर
ठंढा हो जाता है यह उदास मौसम
सुनो
इन उदासियों में
इन उबासियों में
रात के उच्छ्वासों में
उन्नमत हो बदल लेता है
ऋतुचक्र
अपनी इच्छाएं

चाँद की उदासी में
इच्छाओं का सांद्र मिश्रण
सूर्य के उजास के साथ पिघल
बदल लेता है अपना ऋतु मार्ग फिर !
</poem>
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