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<poem>
अभी-अभी मेरे दो टुकड़े हुए हैं.

मैं अपने संतुलन में तराजू की नोक जितनी हल्की सी लड़खड़ाई हूँ.
मेरे दृश्य, समझ और अहम् भी
उसी तरह विभक्त हो गए हैं

क्या किसी विषैले वन्य जीव की आँतों की लिसलिसाहट है यह?
या दर्शन की कोई पाश्चात्य दुःसाहसी विडंबना

रंग की भी अपनी धुन होती है.

जिन दिनों मैं रक्तिम पलाश के फूल चुनती थी सड़कों पर से
उन दिनों महावर और बिछुए उतार दिए थे मैंने.

और अब जब नीला रंग मेरे कंठ में उतरा है
तो उसके साथ
चेरी ब्लॉसम की नाज़ुक कलियां
मेरी रीढ़ की सीधी रेखा पर
कोई प्रेम कहानी बुनना चाहती हैं.

इन दिनों मैं बेमतलब मुस्कुराती हूँ
बेमतलब क्रोध करती हूँ
और बेमतलब अपने बचपन के उस प्रेमी को याद करती हूँ
जिसने मुझे रात के समय खिड़की से केवल पुकारा भर था.
उस समय मैं स्ट्रॉबेरी जैम बना रही थी.
और शक्कर की जगह
उसमे गाँव से मंगवाया गुड़ डालने के बारे में सोच रही थी.

मेरे पिता ने सबके सामने उसे दो थप्पड़ लगाये.
मैं कितनी अनजान थी प्रेम की भाषा को लेकर उन दिनों?

वो शायद बसंत का मौसम रहा होगा.
लेकिन स्मृति पर ज़ोर डालने पर वो पतझड़ का मौसम लगता है.

अब मैं अपने घर की चाबियां
कही भी रख कर अक्सर भूल जाती हूँ.
पीछे मुड़ कर देखती हूँ
तो बन्द घर की जगह
सूखा खलिहान दिखाई देता है.

मेरे दोनों टुकड़ों में ध्वस्त शोरगुल
अपनी-अपनी दुनिया के कोनो में पड़ा
ईश्वर की आँख बनना चाहता है.

लेकिन किसी भी टुकड़े को
अब स्ट्रॉबेरी जैम बनाना नही पसंद.
</poem>
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