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11:11, 19 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सुरेश चंद्रा
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
फिर-फिर कह रहा हूँ, संगी ...
शब्द केवल शब्द हैं,
भावनाओं के वेग से ...
वर्जनाओं के आवेग से ...
संवेदनाओं के तेग से ...
सहानुभूतियों के अतिरेक से ...
वासनाओं के टेक से ...
भ्रमनाओं के तेक से ...
... क्षणभंगुर छलछलाते ...
शब्द केवल शब्द हैं,
निराशाओं के आक्रामक निरस में ...
नेह लिख देंगे हम ...
भ्रामक शैली पर पगला कर ...
लिख देंगे हम स्नेह ...
ईच्छाओं की कसमसाहट से ...
टेरते भाषाओं के स्वप्न मेह ...
आत्माओं के झूठ पर ...
आकर्षित करते अंततः देह ...
... सत्य से समुचित विदेह ...
शब्द केवल शब्द हैं,
रंगमंच पर चिन्हित नाट्य ...
किरदारों का आह्वनित साक्ष्य ...
केवल जोड़-तोड़ वाक़्य ...
क्षण भर आराध्य ...
... अंततः ... अपराध्य ...
शब्द केवल शब्द हैं, ... ... .... !!
</poem>