2,078 bytes added,
13:01, 19 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=नाज़िम हिक़मत
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
[[Category:तुर्की भाषा]]
<poem>
मैं आती हूँ और खड़ी होती हूँ हर दरवाजे पर
मगर कोई नहीं सुन पाता मेरे क़दमों की खामोश आवाज
दस्तक देती हूँ मगर फिर भी रहती हूँ अनदेखी
क्योंकि मैं मर चुकी हूँ, मर चुकी हूँ मैं
सिर्फ सात साल की हूँ, भले ही मृत्यु हो गई थी मेरी
बहुत पहले हिरोशिमा में,
अब भी हूँ सात साल की ही, जितनी कि तब थी
मरने के बाद बड़े नहीं होते बच्चे
झुलस गए थे मेरे बाल आग की लपलपाती लपटों में
धुंधला गईं मेरी आँखें, अंधी हो गईं वे
मौत आई और राख में बदल गई मेरी हड्डियां
और फिर उसे बिखेर दिया था हवा ने
कोई फल नहीं चाहिए मुझे, चावल भी नहीं
मिठाई नहीं, रोटी भी नहीं
अपने लिए कुछ नहीं मांगती
क्योंकि मैं मर चुकी हूँ, मर चुकी हूँ मैं
बस इतना चाहती हूँ कि अमन के लिए
तुम लड़ो आज, आज लड़ो तुम
ताकि बड़े हो सकें, हंस-खेल सकें
बच्चे इस दुनिया के.
'''अनुवाद : मनोज पटेल'''
</poem>