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आजकल / जया पाठक श्रीनिवासन

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<poem>
आजकल बचपन से प्रश्न नहीं सूझते
बारिश कहाँ से होती है
आसमान कहाँ तक है
या पतंग किसी बादल पर क्यों नहीं अटक जाती
आजकल हम वयस्क हैं
हमे सिर्फ उत्तर की चेष्टा रहती है
किसी तरह सबकुछ निबटा दें
सबके मुँह में अपनी बात ठूंस दें
सबको चुप करा दें
लेकिन परेशानी यह है
कि सभी वयस्क हो चुके हैं
सबको उत्तर ही सूझते हैं
प्रश्न नहीं
कोई कुछ पूछता नहीं
सब उत्तर ही देना चाहते हैं
सब दूसरों का मुँह अपने जवाबों से
ठूंस देना चाहते हैं
इसलिए हम सब
प्रश्नों के बगैर
खोखले बेमतलब जवाब मुँह में भरकर
होठों को आपस में चिपकाए
घूम रहे हैं
जैसे पान की गिल्लौरी मुँह में दबा
कोई कोना खोजता चलता हो
पिक थूकने के लिए.
</poem>
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