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|रचनाकार=राबर्ट ब्लाई
|संग्रह=
}}
<Poem>
हफ़्तों मेज पर बिताने के बाद
आखिर निकल पड़ता हूँ टहलते हुए.
छिप गया है चंद्रमा, पैरों के नीचे मुलायम मिट्टी जुते हुए खेत की
न तो सितारे न ही रोशनी का कोई सुराग !
सोचो इस खुले मैदान में अगर कोई घोड़ा
सरपट दौड़ता आ रहा होता मेरी तरफ ?
वे सारे दिन बेकार गए
जो मैनें नहीं बिताए एकांत में.
'''अनुवाद : मनोज पटेल'''
</poem>
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हफ़्तों मेज पर बिताने के बाद
आखिर निकल पड़ता हूँ टहलते हुए.
छिप गया है चंद्रमा, पैरों के नीचे मुलायम मिट्टी जुते हुए खेत की
न तो सितारे न ही रोशनी का कोई सुराग !
सोचो इस खुले मैदान में अगर कोई घोड़ा
सरपट दौड़ता आ रहा होता मेरी तरफ ?
वे सारे दिन बेकार गए
जो मैनें नहीं बिताए एकांत में.
'''अनुवाद : मनोज पटेल'''
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