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क्षणभंगुर / सुरेश चंद्रा

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परितृप्ति से कई-कई प्रकाश वर्ष सुदूर
जीये-जिलाने के अकारण ही कई-कई कारण लिए
जीवन जैसे एक अघोरपंथ है
अनुकृतियों के अपदस्थ श्मशान में
दावानल मे दहकते दर्प के समीप
मस्तक पर भ्रम-भस्म लगाए
सत्य को परिवर्तित करने की चुनौती
सत्य जो सुरसा सा मुँह बाये, एक न एक दिन समक्ष अड़ जाता है
अघोरी का सामर्थ्य केवल प्राणों के खेल तक सीमित है
या कि प्राण हर लिए जाएँ
कि दी जाये स्वयं के प्राणों की आहुति
जीये-जिलाने के अकारण ही कई-कई कारण लिए
जीवन जैसे एक अघोरपंथ है
परंतु इक आयुष्य में निर्धारित, क्षणभंगुर.
</poem>
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