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भैरवी / रामनरेश पाठक

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<poem>
पद्म...अनगिनत पद्म
श्वेत, पीत, रक्ताभ, नील, श्याम पद्म
मेरी बांसुरी के रंध्रों से निकल कर खिलते हैं,
गंगा, टेम्स, मिसीसिपी वोल्गा, हवांगहो, नील की
सूरधारा गीतों पर बह जाते हैं

ज्योतिष्मंत ब्रह्म-पथ से होकर विचरती
मेरी आत्म चेतना, विकास-धारयित्री
यज्ञार्चिता वाणी की तरह
गुलाब बनकर
विश्व-ब्रह्मांड के प्रत्येक अधर पर उग आती है

जी लो यह पद्मगीत
पी लो यह गुलाब मंत्र
संक्रांति का काल बीत गया है
</poem>
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