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|संग्रह=मैं अथर्व हूँ / रामनरेश पाठक
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<poem>
फैशन शो है कनॉटप्लेस
कैलिक्लॉथ का
शोख़ रंगों में हर शाम
आँखें चौंधिया जाता है.
मेनकाएँ उतरती हैं
सर्वोत्तम अद्यतन प्रसाधनों से सँवरी.
लौट जाती हैं नयनचुम्बिता
कतिपय विनिमयों से ही परिनिष्पन्न.
टूटती तो है समाधि विश्वामित्र तक की
संधृता नहीं होती है शकुंतला.
कण्व, कालिदास, दुष्यंत, भारत की
अनस्तित्वा हो जाती है अन्विति,
संवहित होती है मात्र
बीज अस्वीकृति की एक संस्कृति.
फ़ैल जाती है कॉफ़ी हाउस, टी-हाउस में
निरर्थक स्खलनों की संगीति.
उतर नहीं पाती है तूलिका पर
मकबूल फ़िदा हुसैन की, किन्तु.
डूब जाता है सबकुछ
अवशिष्ट आवरण में.
थम जाता है कोलाहल
नहीं होता है तनाव.
फिसलन चटक साड़ियों की
रगबत सुर्ख होठों की
पेंच बॉब्ड बालों की
बन जाता है कनॉट अंगराग.
बन जाता है
मूल्य
आप्राण आडम्बर ही
</poem>
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