{{KKRachna
|रचनाकार=नाज़िम हिक़मत
|अनुवादक=मनोज पटेल
|संग्रह=
}}
धीरे-धीरे छोटे होते जा रहे हैं दिन,
आने वाला है बरसात का मौसम.
मेरा खुला दरवाज़ा इंतज़ार इन्तज़ार करता रहा तुम्हारा.
तुम्हें इतनी देर क्यों हो गई?
मेरी मेज मेज़ पर धरी रह गई ब्रेड, नमक, और एक हरी मिर्च. तुम्हारा इंतज़ार इन्तज़ार करते हुए
अकेला ही पीता रहा मैं
और रख लिया आधी शराब बचाकर तुम्हारे लिए.
पककर डाली पर लगा है अभी.
अगर और देर हो गई होती तुम्हें
अपने आप ही गिर गया होता वह जमीन ज़मीन पर.
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : मनोज पटेल'''
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