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रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 3

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|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर" }}{{KKPageNavigation|पीछे=रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 2|आगे=रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 4|संग्रहसारणी= रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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<poem>
गिरा गहन सुन चकित और मन-ही-मन-कुछ भरमाया,
लता-ओट से एक विप्र सामने कर्ण के आया,
कहा कि 'जय हो, हमने भी है सुनी सुकीर्ति कहानी,
नहीं आज कोई त्रिलोक में कहीं आप-सा दानी.
[[रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 2|<< पिछला भाग]]'नहीं फिराते एक बार जो कुछ मुख से कहते हैं,प्रण पालन के लिए आप बहु भाँति कष्ट सहते हैं.आश्वासन से ही अभीत हो सुख विपन्न पाता है,कर्ण-वचन सर्वत्र कार्यवाचक माना जाता है.
'लोग दिव्य शत-शत प्रमाण निष्ठा के बतलाते हैं,
शिवि-दधिचि-प्रह्लाद कोटि में आप गिने जाते हैं.
सबका है विश्वास, मृत्यु से आप न डर सकते हैं,
हँस कर प्रण के लिए प्राण न्योछावर कर सकते हैं.
[[रश्मिरथी 'ऐसा है तो मनुज-लोक, निश्चय, आदर पाएगा.स्वर्ग किसी दिन भीख माँगने मिट्टी पर आएगा.किंतु भाग्य है बली, कौन, किससे, कितना पाता है,यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है. 'क्षुद्र पात्र हो मग्न कूप में जितना जल लेता है,उससे अधिक वारि सागर भी उसे नहीं देता है.अतः, व्यर्थ है देख बड़ों को बड़ी वास्तु की आशा,किस्मत भी चाहिए, नहीं केवल ऊँची अभिलाषा.' कहा कर्ण ने, 'वृथा भाग्य से आप डरे जाते हैं,जो है सम्मुख खड़ा, उसे पहचान नहीं पाते हैं.विधि ने क्या था लिखा भाग्य में, खूब जानता हूँ मैं,बाहों को, पर, कहीं भाग्य से बली मानता हूँ मैं. 'महाराज, उद्यम से विधि का अंक उलट जाता है,किस्मत का पाशा पौरुष से हार पलट जाता है.और उच्च अभिलाषाएँ तो मनुज मात्र का बल हैं,जगा-जगा कर हमें वही तो रखती निज चंचल हैं. 'आगे जिसकी नजर नहीं, वह भला कहाँ जाएगा?अधिक नहीं चाहता, पुरुष वह कितना धन पाएगा?अच्छा, अब उपचार छोड़, बोलिए, आप क्या लेंगे,सत्य मानिये, जो माँगेंगें आप, वही हम देंगे. 'मही डोलती और डोलता नभ मे देव-निलय भी,कभी-कभी डोलता समर में किंचित वीर-हृदय भी.डोले मूल अचल पर्वत का, या डोले ध्रुवतारा,सब डोलें पर नही डोल सकता है वचन हमारा.' भली-भाँति कस कर दाता को, बोला नीच भिखारी,'धन्य-धन्य, राधेय! दान के अति अमोघ व्रत धारी.ऐसा है औदार्य, तभी तो कहता हर याचक है,महाराज का वचन सदा, सर्वत्र क्रियावाचक है. 'मैं सब कुछ पा गया प्राप्त कर वचन आपके मुख से,अब तो मैं कुछ लिए बिना भी जा सकता हूँ सुख से.क्योंकि माँगना है जो कुछ उसको कहते डरता हूँ,और साथ ही, एक द्विधा का भी अनुभव करता हूँ. 'कहीं आप दे सके नहीं, जो कुछ मैं धन माँगूंगा,मैं तो भला किसी विधि अपनी अभिलाषा त्यागूंगा.किंतु आपकी कीर्ति-चाँदनी फीकी हो जाएगी,निष्कलंक विधु कहाँ दूसरा फिर वसुधा पाएगी. 'है सुकर्म, क्या संकट मे डालना मनस्वी नर को?प्रण से डिगा आपको दूँगा क्या उत्तर जग भर को?सब कोसेंगें मुझे कि मैने पुण्य मही का लूटा,मेरे ही कारण अभंग प्रण महाराज का टूटा. 'अतः विदा दें मुझे, खुशी से मैं वापस जाता हूँ.'बोल उठा राधेय, 'आपको मैं अद्भुत पाता हूँ.सुर हैं, या कि यक्ष हैं अथवा हरि के मायाचर हैं,समझ नहीं पाता कि आप नर हैं या योनि इतर हैं. 'भला कौन-सी वस्तु आप मुझ नश्वर से माँगेंगे,जिसे नहीं पाकर, निराश हो, अभिलाषा त्यागेंगे?गो, धरती, धन, धाम वस्तु जितनी चाहे दिलवा दूँ,इच्छा हो तो शीश काट कर पद पर यहीं चढा दूँ. 'या यदि साथ लिया चाहें जीवित, सदेह मुझको ही,तो भी वचन तोड़कर हूँगा नहीं विप्र का द्रोही.चलिए साथ चलूँगा मैं साकल्य आप का ढोते,सारी आयु बिता दूँगा चरणों को धोते-धोते. 'वचन माँग कर नहीं माँगना दान बड़ा अद्भुत है,कौन वस्तु है, जिसे न दे सकता राधा का सुत है?विप्रदेव! मॅंगाइयै छोड़ संकोच वस्तु मनचाही,मरूं अयश कि मृत्यु, करूँ यदि एक बार भी 'नाहीं'</ चतुर्थ सर्ग / भाग 4|अगला भाग >poem>]]
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