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स्वर्ण ~ कलश निकल आया री !{{KKGlobal}}सखी, स्वर्ण ~ कलश नभ पर छाया री !{{KKRachnaनर्तन करते , द्रुम - तृण अविरल,|रचनाकार=लावण्या शाहनभ नील सुरभी रस आह्लादित`सँवेदन मन मेँ, है रवि नभ मेँ,उज्ज्वल प्रकाश लहराया री !सखी, स्वर्ण ~ कलश उग आया री ! }}
यन्त्रवत जीवन जन धन मन,स्वर्ण ~ कलश निकल आया री !<br>युगान्तर सीमित निकट चित्तभ्रम कलि का सम्मोहनसखी,स्वर्ण ~ कलश नभ पर छाया री !<br>वशीकरण बननर्तन करते , द्रुम - तृण अविरल,<br>नभ नील सुरभी रस आह्लादित`<br>सँवेदन मन से मन तक मेँ, है रवि नभ मेँ,<br>उज्ज्वल प्रकाश लहराया री !<br>सखी, स्वर्ण ~ कलश चढ उग आया री !<br><br>
नर पुन्गव सब है लौट चलेयन्त्रवत जीवन जन धन मन,<br>युग प्रभात की होड लगीयुगान्तर सीमित निकट चित्तभ्रम कलि का सम्मोहन,<br>युग सन्ध्या आगे दौड पडीवशीकरण बन,वामन ह्र्दय, किन्पुरुष कलेवर,थाम अज्ञ है खडे हुए मन से मन तक लहराया री !<br>सखी, स्वर्ण कलश अरुणाया चढ आया री !<br><br>
नर पुन्गव सब है लौट चले,<br>युग प्रभात की होड लगी,<br>युग सन्ध्या आगे दौड पडी,<br>वामन ह्र्दय, किन्पुरुष कलेवर,<br>थाम अज्ञ है खडे हुए !<br>सखी, स्वर्ण कलश अरुणाया री !<br><br> युग अन्त प्रतीति प्रकट हुई,<br>महाकाली मर्दन को उमड पडी,<br>युग सन्ध्या है निगल रही,<br>काल अमावस रात की-<br>कलिका के घून्घर मे जा छिप,<br>स्वर्ण~ कलश, कुम्हलाया री! <br>
सखी, स्वर्ण कलश ढल जाता री!