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मुक्तक / कविता भट्ट

1,364 bytes added, 01:58, 16 मई 2018
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|रचनाकार=कविता भट्ट
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<poem>
1'''1रेत को मुट्ठी में भर करके हम फिसलने नहीं देते ।
वक्त कितना भी हो मुश्किल ,खुद को बदलने नहीं देते॥
डराएँगे क्या अँधेरे अपनी बुरी निगाहों से हमें ।
फक्र फ़ख्र तारों पर है जो उजालों को ढलने नहीं देते ॥'''
2
'''बर्फीली कंच रातों में, जब लिहाफों में मचलते हो ।
चाय की मीठी चुस्कियाँ लेते हुए ज़हर उगलते हो ।
जब सिन्दूर सरहद पर खड़ा होता है अडिग पर्वत-सा
तब तुम गद्दारों के लिए कैंडिल मार्च पर निकलते हो ॥'''
3
'''सिसकती सर्द रातों का मेरा सिंगार लौटा दो।
बूढ़े माँ-पिताजी की वो करुण मनुहार लौटा दो ॥
मनुज बनकर दानवों की ओ वकालत करने वालों !
मेरे भरतू का बचपन, पिता का दुलार लौटा दो॥'''4'''सूखा खेत बरसती बदली हूँ मैं'''आसुरी शक्तियों पर बिजली हूँ मैं ।निकलने तो दीजिए मुझे नीड़ से ये मत पूछना कि क्यों मचली हूँ मैं ॥5'''फूल -पाँखुरी भी हूँ , तितली हूँ मैं'''उमड़े तूफ़ानों से निकली हूँ मैं ।असीम अम्बर में लहराने तो दोये कभी मत कहना कि पगली हूँ मै॥6'''गिरी , हौसलों से सँभली हूँ मैं'''तभी तो यहाँ तक निकली हूँ मैं ।शिखर पर पताका फहराने दोअभी तो बस घर से चली हूँ मैं ॥7'''गहन हुआ अँधियार'''प्रियतम मन के द्वार ।धरो प्रेम का दीपकर दो कुछ उपकार ।8'''नीरव मन के द्वार''' अँसुवन की है धार।छू प्रेम की वीणाझंकृत कर दो तार ॥
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'''