'''3.'''
मैं नदी हूँ
पर कभी-कभी बन जाती हूँ
भयानक
और
ताक़तवर।
मैं जीवन
और मौत को
कुछ नहीं समझती
गिरते हुए झरनों को कुचलती
गुस्से और रोष से पत्थरों को पीटती
चकनाचूर कर देती हूँ उन्हें।
रौद्र रूप धारण करती हूँ मैं
जान बचाकर भागने लगते हैं जानवर
खेतों की छातियों पर चढ़ जाती हूँ
मैदानों और ढलानों को
कंकड़-पत्थरों से भर देती हूँ।
चरागाहों और घरों में
घुस जाता है बाढ़ बनकर मेरा पानी
दरवाज़ों को खटखटाता है
लोगों पर कहर ढाता है
समो लेता है उनके शरीर और आत्माएँ अपने भीतर।