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|रचनाकार=विकास शर्मा 'राज़'
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जिस वक़्त रौशनी का तसव्वुर मुहाल था
उस शख़्स का चराग़ जलाना कमाल था

रस्ता अलग बना ही लिया मैंने साहिबो
हरचन्द दायरे से निकलना मुहाल था

उसके बिसात उलटने से मालूम हो गया
अपनी शिकस्त का उसे कितना मलाल था

मैं भी नए जवाब से परहेज़ कर गया
उसने भी मुझसे पूछा पुराना सवाल था

अफ़सोस ! अपनी जान का सौदा न कर सके
उस वक़्त कीमतों में बला का उछाल था
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