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कई दिन हुए मुझे फर्क नहीं पड़ता नदी तालाब का पानी जम गया है सरकारी फरमान पर खानापूरी करते पांव ठीक से रखना ... संभालकर टीन के शेड जोर जलती लकडिय़ों की फिसलन है ज़रा अदब ठंडी पड़ी राख कुरेद कुरेदकर आग की गर्मी को ढूंढते पाते मैलै कुचैले लत्तर से चलो स्वयं को ढ़कने का पता अनावश्यक प्रयास करते असक्त बूढ़े को देखकरकोई स्पंदन नहीं एकदम शांतकोने में पड़े पुआल के ढ़ेर में किसी मड़ियल-सी कुतिया ने जने तो थे छः सात बच्चे किंतु दो ही स्तनपान को बचे हैं अब सहमी-सी लेटी है? थोड़े दिन पहले यहाँ किनारे हुआ करते कभी भी आक्रामक होते नहीं देखा तब भी जब सियार ने उसके सामने ही झपट लिए थे दो शहर से थोड़ी दूर तो व्याकुल हुई थी ये जगह मगर यहाँ हर घड़ी रोई चिल्लाई भी थी सुरीली आवाज चटखती रहती उपवास में चली गई थी दो एक दिन किंतु अब शांत बैठी है अद्भुत जीवन हुआ करता था बहते पानी वहीं कोने में टकटकी लगाए जमी आशावान है जब उष्मारहित हो चुकी राख से कब्र—सी लगती ऊबकर उठेगा वोतो ही वह जा सकती है मुझे वहाँ बच्चों समेत ट्रेन का इंतजार अभी जूते पहन और करना है कितने आराम (धुंध की वजह से चल रहे हो तुम रोजाना ही लेट रहती है) याद होता जो तब का मंज़र (खैर मुझे फर्क नहीं पड़ता) पांव धरते ही रोएँ सिहर जाते हाँ कल की मीटिंग की थोड़ी चिंता हैतब दिसम्बर के उलट सबकुछ बदलाआसपासअक्सर ही ट्रेनें लेट हो जाती हैं कई सारे शेड बने हैं प्लेटफार्म पर इन दिनों किंतु ये वाला मेरा पसंदीदा है यहाँ कोई भद्रजन कभी नहीं बैठता कंगला कुतिया और कभी-बदलाकभी मैं बहुत थोड़ा-सा फर्क इसलिए है इस दम किबहुत ज़रूरी हो मेरे पास हैं कपड़े जूते तो ही कोई घर मोबाइल और पावरबैंक भी रम की छोटी बोतल से निकलता दो घूंट गटकसिगरेट जला ली है मैंनेरोशनी आकाश से छन नहीं पाती उंगलियाँ बड़ी फास्ट हैं मेरी स्क्रीन परअनलॉक होते हीघिरे बादल सर्र से चिपट चली जाती है न्यूजडेस्क परशफ्फाक-सी उड़ती जहाँ जारी रहती है बरफ़ बहस हमेशा इन दिनों प्रधानमंत्री के दावों और दावों की हवा निकालते विपक्ष के साथ बीच जब आनंद से नाचते गाते हो तुमलोग गरमागरम गालियाँपरिंदे ताकते हैं वीराने घुप्प अंधेरे को चीरतीसफेद चादर बिछी है चारों तरफ मैदान पूरा खाली स्क्रीन से निकलती रोशनीऔर ऊबकाई से थका थका-सा मैं हरा कैसे होऊँ? अचानक से पास करती है थ्रू गाड़ी रपारपक्या तुम्हें डर सन्नाटे को चूर धूल और हवा के अनियंत्रित बवंडर हिलोरती छुक छुक और क्रां-क्रां का नाद करती इस धड़धड़ाहट मेंक्यों समझ नहीं लगतापाया मैं किकियाती कुतिया की आवाज? उठते हो रात-बिरातका सन्नाटा नकाब ओढ़े हुए देखते होसिर्फ आराम के लिए नहीं होता बरफ का गिरना शिकारी के लिए स्निग्ध आमंत्रण भी तो है सिकुड़ झाड़ियों की सुगबुगाहट और मद्धम पड़ती चीख को गर्दन ऊँची कर छटपटाते हुएदेखने के बैठा सिवाय कोई विकल्प नहीं है अबाबील उस सनोबर पर उसके पास हवा जब जोर कातर भाव से बहती तो कुनमुनाता पूंछ हिला हिलाकर ताकती है मेरी तरफ सजा-सी स्क्रीन पर जारी है चार दिन बीत चुके हैंआंखें नम महान बहस भ्रष्टाचार को लेकर मैं कंगला और कुतिया खामोश बैठे हैं उसकी पेट खाली शेड में अपने एकमात्र बचे बच्चे कोजीभ से चाटकर स्वयं को सांत्वना देतीअपने बच्चे में "तुम सुरक्षित हो मेरे रहते" का भ्रम पैदा करती माँ को देख रहा हूँ मैं भ्रष्टाचार का मतलब सिर्फ़ वित्तीय गड़बडिय़ां ही नहीं होतीइतनी नैतिकता को कौन सुने? क्योंकि यह देश बदल रहा हैऔर दिल्ली में क्रांति जारी है
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