भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
कब आओगे, कल्कि?
परित्राणाय साधूनाम्
विनाशाय च दुष्कृताम्
पुन: धर्मसंस्थापनार्थाय
प्रण अपना कब निभाओगे, कल्कि?
कब आओगे?
हम प्रतीक्षकों को
कोई ढाढ़स तो दे दो,
अपने अवतरण की
आकाशवाणी कर दो,
कोई दृष्टान्त तो दे दो;
प्रभाव अपना कब दिखाओगे, कल्कि?
कब आओगे?
हाँ आओगे जब
तो इतना ध्यान रहे-
तुम्हारे पूर्वावतार काल के शस्त्रास्त्र सब-
कोई चाप, कोई गदा, कोई वज्र,
कोई खड्ग, कोई त्रिशूल, कोई चक्र,
नहीं चलेंगे अब;
न्यूक्लियर अस्त्रों की तैयारी कर लेना,
अत्याधुनिक बम-वर्षक विमान जुटा लेना,
ए.के. सैंतालीस, छप्पन आदि से लैस होकर आना,
किसी बंकर में अपना ठिकाना बनाना।
देखो कल्कि,
मैं डरा नहीं रहा तुमको,
कहीं तुम अपना प्रोग्राम बदल न लेना!
मैं तो अवगत करा रहा हूँ तुमको-
आज की आसुरी शक्तियाँ बदल गई हैं,
ये साइबर असुर कुछ जटिल-प्रकृति हैं,
ये भावनाशून्य, विध्वंसक-प्रवृत्तिहैं ।
तुम त्रिदेव से मिलकर
कोई विशेष युक्ति कर
उतरना धरती पर
और उतरते समय भी रहे ध्यान में-
कहीं माईन्ज़ न बिछीं हों मार्ग में,
तुम्हारे उन्मुख लगी न हों मिसाईलें,
रहना सचेत, सतर्क, सैन्य-सहित,
हम तुम्हारे सुहृद्, सहृदय प्रतीक्षक-
तुम्हारे शुभागमन के हेतु
बनाते हैं क्षेम-कामनाओं का सेतु।
</poem>