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|रचनाकार=शिशु पाल सिंह 'शिशु'
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<poem>
तुम्‍हारे शुक्‍ल-पक्ष में पूर्ण हास को पन्‍द्रह अंक मिले;
रुपहली मुसकानों को लिये कला के सोलह फूल खिले।
चकोरो-कुमुदों की मूर्छना, सुधा-सिंचन से जाग गई;
उठी सागर से एक हिलोर, उमंगें ले अनुरागमयी।

तुम्‍हारे कृष्‍ण-पक्ष में तिमिर-रूप का क्रमिक-विकास हुआ;
सांवले पाकर तीस दिनांक आयु में पूरा मास हुआ।
स्‍वयं-भू के मस्‍तक तक पहुंच, कीर्तियों से जो धवल हुआ;
वही बालेन्‍दु इसी क्षेत्र में, त्‍याग में, तप में सफल हुआ।

श्‍वेत अंचल फैलाकर साथ रही हैं अंधिकारी जितनी;
स्‍याह दामन फैलाकर साथ रही है उजियाली उतनी।
एक में सन्‍ध्‍या का अभिषेक किया, लेकर चंदन उज्‍जवल;
दूसरे में अनुरंजित किया, सांझ के नयनों में काजल।

तुम्‍हारी फिर भी तो यह पंक्‍ति शेष है सबके पढ़ने को।
"बढ़ा करते हो घटने को कि घटा करते हो बढने को॥
</poem>