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|रचनाकार=शिशु पाल सिंह 'शिशु'
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<poem>
डालियों के मचान से उतर, धराशायी होने वाले;
मुद्दतों बाद बहिन-धूल के सगे भाई होने वाले।
व्‍यर्थ तुम पतझड़ से भय मान पड़ गये पीले बेचारे;
बदलते नहीं नियति के नियम, किसी के डरने के मारे।

यहाँ पर हर दिन की है साँझ, दीप जलता है बुझने को;
वाक्‍य को मिलता पूर्ण-विराम, पंथिक चलता है रूकने को।
व्‍योम में ऊँचे उठते मेघ, बरस कर नीचे गिरने को;
चाँदनी मुसकाती है सदा, अमावस्‍या से घिरने को।

किसी के भी आने के साथ लगा है जाने का बंधन;
पुलक कर खिलने के ही साथ लगा कुम्‍हलाने का बंधन।
जागरण को सोना ही पड़ा-होश ने बेहोशी पाई;
पुरातन होने पर परिधान—बदलने की नौबत आई.

सर्व-साधारण के मंच से व्‍यक्‍तिगत नाता मत जोड़ो;
पुराने हो इस कारण हटो, नये के लिए जगह छोड़ो।
</poem>