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|रचनाकार=शिशु पाल सिंह 'शिशु'
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<poem>
गाँव से दूर पूर्व की ओर, ढोर अपने ले जाता हूँ;
और सारे दिन, बन के घोर बिजन में उन्‍हें चराता हूँ।
विषम-थल होने से हैं सुगम नहीं, साधन संचरणों के;
चिन्‍ह कुछ पगडंडी ही लिये हुए बनचारी चरणों के.

उसे भी कहीं उतरना और कहीं पर चढ़ना पड़ता है;
कहीं खो कर अपने को, पुन: प्रकट ही बढ़ना पड़ना है।
क्‍योंकि मिट्टी के ढूहे उठे–लिये कूबड़-सी ऊँचाई;
दिखाई पड़ती खड्डों बीच, कहीं खाई-सी गहराई.

कहीं नोकीले कीले लिये पड़े हैं काँटे कर्कश-से;
प्रखर शर एकलब्य के बिखर गये हैं मानो तरकस से।
कुशों की पैनी सुइयाँ सदा, दिया करती गति को कसकन;
पगों के तलवों को है ज्ञात, व्‍यथाओं के पूरे विवरण।

किन्‍तु दुर्गमता का भूगोल, उस समय निपट भूलाता हूँ।
लताओं के मण्‍डप में बैठ, जबकि बाँसुरी बजाता हूँ॥
</poem>