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|रचनाकार=शिशु पाल सिंह 'शिशु'
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<poem>
"सर्व-साधारण के मंच से, व्‍यक्‍तिगत नाता मत जोड़ो,
पुराने हो इस कारण हटो—नये के लिये जगह छोड़ो"।
बहुत संभव है—मेरे शब्‍द, तुम्‍हें ये तीक्ष्ण लगे होंगे,
और मेरे प्रति ज्वालामुखी रोष के भाव जगे होंगे।

मानता हूँ कि लूटी डाल में, तुम्‍हीं पहले कोंपल लाये,
द्रौपदी की रखने को लाज, लहलहाते अंचल लाये।
हरी चादर आदर से पिन्‍हा, सुरक्षित मर्यादायें कीं,
हाँफते हुए पथिक के दग्‍ध-प्राण को शीतलतायें दीं।

इन्‍हीं गति-विधियों में हो व्‍यस्‍त, तुम्‍हारा रूप रहा न नया,
लड़कपन यौवन की राह से, बुढ़ापे के घर पहुँच गया।
किन्‍तु आगे जायेगा कहाँ—विवश वापस ही आयेगा,
सांझ का पीताम्‍बर ही पलट उषा की चुनरी लायेगा।

साँझ के बदले जो दे प्रात—उसे इस भांति न देख डरो।
मृत्‍यु के बदले जो दे जन्‍म, उसी की गोदी में उतरो॥
</poem>