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|रचनाकार=शिशु पाल सिंह 'शिशु'
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<poem>
तुम्‍हारा चित्र कह रहा है कि यही है गौ-धूली बेला;
पछाहीं पनघट पर कुछ लगा, डूबती किरणों का मेला।
जा रहा है सोने का थाल, खिसकता मिट्टी के घर में;
पीलिया के केवल आसार, रह गये नीलम के सर में।

हरी धरती दिन भर की तपी, पा रही है शीतल छाया;
लिये हलका केशरिया रंग, मगन हरियाली की काया।
खड़ा घर के मालिक–-सा पेड़, घास के चौड़े आँगन में;
डाल पर एक नीड़ की गोद, सफल है अपने जीवन में।

झाँकते हैं दो नीड़-कुमार, जिन्‍दगी के वातायन से;
भूख से नन्‍हीं चोंचें खोल, हेरते हैं आश्‍वासन से।
उन्‍हीं की ओर एक खग वायुलहर पर, पर तैराता—सा;
बँधा वत्‍सलता की डोर से, उड़ा जाता अकुलाता—सा।

चित्र तो सुन्‍दर है पर मित्र, हमारा मन तो तब माने।
जब कि पंछी अपनी चोंच में, दबाये भी हो दो दाने॥
</poem>