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व्यास जी कहा सूत ने सुनिये भाई। मंगल की सब रीति निभाई।।विप्र जनों को दान दे दिया। गमन नगर की ओर कर दिया।।कुछ दूरी पर बेड़ा पहुँचा। सत्यनारायण प्रभु ने सोचा।।मन मे प्रभु के जागी इच्छा। इन की लूँ अब पुनः परीक्षा।।पूछा इस नौका में क्या है। सुन कर मन उद्विग्न हुआ है।।पूछ रहे हो क्यों यह दण्डी। यहाँ नहीं है धन की मंडी।।चाह रहे हो क्या धन लेना। यहाँ भरा है मात्र चबेना।।लता पत्र नौका भर लाये। मिर्च मसाले हैं मंगवाये।।निष्ठुर वचन सुने ईश्वर ने। लगा क्रोध से संयम मरने।।कहा सत्य हो वचन तुम्हारा। फिर दण्डी ने किया किनारा।।दूर नदी से जा कर बैठे। वणिक पुत्र अभिमानी ऐंठे।।नित्य क्रिया कर के जब आये। उठी हुई नौका को पाये।।चकित हुए से भागे आये। लता पत्र ही बिखरा पाये।।मूर्छित हो कर गिरे धरा पर। चिंता को जय मिली त्वरा पर।।जामाता ने तब समझाया। परिवर्तन का भेद बताया।।कहा शाप दण्डी का पाया। इसीलिये सब द्रव्य गंवाया।।वे समर्थ सब कर सकते हैं। सारी चिंता हर सकते हैं।।सुन यह साधु वणिक तब बोला। भेद हृदय का अपने खोला।।भूली पूजा याद आ गयी। जामाता की बात भा गयी।।चरण गहे दण्डी के जा कर। कहा क्षमा करिये हे द्विजवर।।हमने जो अपराध किया है। उस का ही तो दण्ड दिया है।।अब सब भूल क्षमा कर मेरी। करो कृपा प्रभु करो न देरी।।दण्डी बोले- यों मत रोवो। आँसू से कर्मों को धोवो।।मेरी पूजा से तज्म हट कर। बिता रहे जीवन दुख सह कर।।कहा साधु ने हम तो नर हैं। किंतु आप जग के ईश्वर हैं।।माया नहीं आप की जानी। रहे देव देवी अभिमानी।।वेद स्वरूप न जिस का जाने। उस की महिमा कौन बखाने।।हम को मोह गयी यह माया। इस ने हम को भी भरमाया।।लौटा दें धन नाथ हमारा। पूजन होगा नित्य तुम्हारा।।भक्ति भरे वचनों को सुन कर। तुष्ट हो गये दण्डी सत्वर।।मनवांछित वर ज्ञान दे गये। तब प्रभु अंतर्ध्यान हो गये।।वित्त भरी नौका को देखा। विभु से पायी जीवन रेखा।।विधि से पूजन कर हरषाये। बेड़ा घर की ओर चलाये।।नगर निकट जा साधु बोले। रतनपुरी ने मारग खोले।।देखो नगरी निकट आ गयी। दृग में जल की बूंद छा गयी।।कहा दूत से अब घर जाओ। पत्नी को सन्देश सुनाओ।।बन्धु बांधवों सहित सिधाए। गेह लौट गृहस्वामी आये।।सुन कर हर्षित सती हो गयी। पूजा की विधि मध्य खो गयी।।पुत्री से तब बोली माता। नगर निकट आये जामाता।।मैं चलती हूँ तुम भी आओ। चल कर पति के दर्शन पाओ।।सुन कर पूजन पूर्ण कराया। पर प्रसाद था वहीं भुलाया।।त्याग प्रसाद उठी वह जल्दी। दर्शन हेतु स्वयं भी चल दी।।सत्य देव पुत्री से रूठे। दृश्य दिखाये उस को झूठे।।जामाता जल मध्य खो गया। नौका सहित अदृश्य हो गया।।कलावती ने जब पति खोया। रोम रोम था उस का रोया।।माता पिता दुखी हो बोले।अश्रु नयन में उन के डोले।।नाविक भी व्यकुल थे कहते। कहाँ गया वह सब के रहते।।लीलावती लगी फिर कहने। लगे अश्रु आँखों से बहने।।कौन देवता रूठ गया है। कुछ हम से अपराध हुआ है।।अभी यहीं था कहाँ गया है। बेटा कहाँ अलक्ष्य हुआ है।।सत्यदेव की अद्भुत गरिमा। कौन जानता उन की महिमा।।लिये गोद पुत्री को बोली। हाय धरा क्यों ऐसे डोली।।कहे सती मुझ को होना है। लिखा भाग्य में जब रोना है।।चरण पादुका लिये हाथ में। पुत्री मरने चली साथ में।।पति का वह अनुगमन करेगी। तब ही मन की पीर हरेगी।।देख दुखी कन्या को ऐसे। साधु हो गया पागल जैसे।।सत्यदेव की महिमा न्यारी। क्या उन ने माया विस्तारी।।भ्रांत हो गये हम माया से। पूजन करें अभी श्रद्धा से।।बुला सभी को तथ्य बताया। प्रभु चरणों मे शीश झुकाया।।दीनदयाल दया कर आये। भक्तों पर करुणा बरसाये।।तब नभ से यह वाणी गूँजी। कन्या ने है मूरत पूजी।।किन्तु प्रसाद नहीं है खाया। इसीलिये है मन भरमाया।।घर जा कर प्रसाद खा आये। तो निज पति को सम्मुख पाये।।सुनते ही कन्या उठ भागी। प्रभु पर प्रीति अलौकिक जागी।।खा प्रसाद जब वापस आयी। पति को देख बहुत हरषायी।।सुनें पिता अब विनती मेरी। घर लौटें क्यों करते देरी।।कलावती के वचन सुने जब। मात पिता सन्तुष्ट हुए तब।।सत्यदेव का पूजन ठाना। विधि विधान से मन हरषाना।।साधु लौट घर वापस आया। तभी नित्य संकल्प उठाया।।हो संक्रांति रात पूनम हो। सत्यनारायण का पूजन हो।।इस जीवन भर था सुख पाया। मरणोपरांत सत्यपुर पाया।।
एक दिवस नैमिष निर्जन में। शौनकादि ऋषि बैठे वन में।।चिंतित जग की दशा निहारें। तभी सूत जी वहाँ पधारे।।लगे पूछने सब मिल उन से । वांछित फल मिलता किस व्रत से।।कहा सूत ने नारद ने भी। पूछा कमलापति से यह ही।।प्रभु ने था जो उन्हें बताया। वही आज है मैं ने गाया।।एक बार नारद मुनि ज्ञानी । करतल बीन राममय बानी।।भ्रमण कर रहे लोक लोक में। देखा मानव पड़ा शोक में।।मृत्यु-लोक में दुख है भारी। कर्म भोग भोगें नर नारी।।कैसे कष्ट दूर हो इन का। यही एक चिंतन था मन का।।विष्णु लोक वे पहुँचे जा कर। रूप चतुर्भुज देखा सुंदर।।शंख चक्र पंकज वनमाला। गदा हाथ उर बाहु विशाला।।विनय करें नारद मुनि ज्ञानी। मनातीत चित् रूप अमानी।।निर्गुण गुणी अनादि अनन्ता। गान करें शारद श्रुति सन्ता।।आदि भूत आरतिहर स्वामी। नमन तुम्हें हे अंतर्यामी।।बोले ।। श्री हरि जगदाधारा। किस कारण आगमन तुम्हारा।।शंका इच्छा हो जो मन में। करूँ निवारण उस का क्षण में।।नारद बोले मृत्यु-लोक में। सारे प्राणी पड़े शोक में।।नाना योनी नानाकारा। कर्म-भोग भोगे जग सारा।।भूतल पर हैं नाना रोगा। कैसे शमन कष्ट का होगा।।लघु उपाय कोई बतलायें। जिस से सभी सुखी हो जायें।।बोले हरि सुनिये मुनि नारद। परहित तत्पर वाक्य विशारद।।जो कर के सब सुखी रहेंगे। हम उपाय अब वही कहेंगे।।स्वर्ग मर्त्य दोनों में दुर्लभ। यह व्रत हो सब भक्तों को लभ।।सत्यनारायण का यह व्रत है। इस को करने में जो रत है।।सुख सम्पत्ति सभी सुख पाता। मरने बाद मुक्त हो जाता।।यह सुन कर नारद जी बोले। कृपासिन्धु अब रहस्य खोलें।।क्या फल क्या विधान है इसका। कर के भला हुआ है किसका।।यह सब विधि प्रभु आप बतावें। कब व्रत करें यही समझावें।।बोले हरि दुख कष्ट मिटेगा। अन धन जग में मान बढ़ेगा।।सम्पति औ सौभाग्य प्रदाता। यह व्रत जय अरु सन्तति दाता।।जिस दिन मन में श्रद्धा जागे। उसी दिवस हो प्रभु के आगे।।सत्य नारायण का आवाहन। बन्धु बांधवों युत हो वन्दन।।नत मस्तक नैवेद्य चढ़ावे। केला घी अरु दूध मंगावे।।गेहूँ या चावल पंजीरी। गुड़ या चीनी या हो बूरी।।भक्ति प्रेम से पूजन कर के। कथा सुने ब्राह्मण को वर के।।विप्र बन्धु सब भोग लगावे। प्रेम सहित भोजन करवावे।।दे दक्षिणा प्रेम से उन को। शांति प्राप्त हो जावे मन को।।खा प्रसाद सब नाचें गायें। तदुपरांत अपने घर जायें।।इस से इच्छा होगी पूरी। दुख विपत्ति से होगी दूरी।।नाम मिटा देता जो दुख का। लघु उपाय है यह कलयुग का।। ।। श्री सत्य नारायण व्रत कथा का प्रथम चौथा अध्याय समाप्त।।
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