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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
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आतिशे ग़म से गुज़रता रोज़ हूँ
रोज़ मैं जीता हूँ , मरता रोज़ हूँ

जाने कब आवाज़ दे कर रोक ले
उस के कूचे में ठहरता रोज़ हूँ

एक दिन हो जाऊंगा मिट्टी का ढेर
थोड़ा थोड़ा सा बिखरता रोज़ हूँ

है मुझे सच बोलने का शौक़ भी
और अपने ख़ुद से डरता रोज़ हूँ

ज़ख़्म आलूदा सिपाही की तरह
ज़िन्दगी से जंग करता रोज़ हूँ

एक सूरज मेरे अंदर क़ैद है
डूबता हूँ , फिर उभरता रोज़ हूँ

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