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मेरी तन्हाई मेरा जुनूं और मैं
ए शबे हिज्र कितना चलूं और मैं

डाल दे क़ैद ख़ाने फिर से मुझे
तेरे दरबार में सर निगूं और मैं ?

कर रही है ज़रूरत तक़ाज़ा मगर
तुझ पे कोई क़सीदा लिखूँ और मैं ?

तुझ को पाने की धुन में भटकते रहे
एक बे चारा दिल बे सुकूँ और मैं

वो तो घर के चिराग़ों से मजबूर हूं
आंधियो! वरना तुम से डरूं और मैं ?

</poem>