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|रचनाकार=राजेराम भारद्वाज
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<poem>
जिसकै लागै वोही जाणै, नही और नै बेरा,
अन्धे माणस कै लेखै, रहता है सदा अंधेरा ।। टेक ।।

क्या जाणै पुष्पों के रस नै, जो पाहन का कीड़ा,
बाँझ लुगाई को क्या मालूम, प्रसूति की पीड़ा,
मूसल नही समा सकता, हो सुई का रोजन भीड़ा,
लग्या बैल नै देण मूढ़ नै, मिल्या पान का बीड़ा,
बिस्मिल दिल पै चोट लगै, जब फीका पड़ज्या चेहरा।।

गूंगे को सुपना आज्या, वो बोल नही सकता,
पाँगा माणस बिन पैरों के, डोल नही सकता,
टुंडे आगै धरो तराजू, तोल नही सकता,
अज्ञानी नर भेद वेद का, खोल नही सकता,
समझदार माणस नै हो सै, एक ही बोल भतेरा।।

अंधे कै शीशा गंजे कै तेल, काम आवै ना,
जिसमै कुछ नफा नही, वो खेल काम आवै ना,
वक्त पड़े पै धोखा देज्या, वो मेळ काम आवै ना,
जिसकै ना फळ फूल लगै, वो बेल काम आवै ना,
सिंहनी शेर एक जणती, फिर चीता औऱ बघेरा।।

शील सबर संतोष शांति, समता सत की ढाल कहैं,
काम क्रोध मद लोभ मोह, माया दुःख का जाल कहैं,
सेढु लक्ष्मण शंकरदास के, परम गुरु गोपाल कहैं,
केशवराम द्विज कुंदनलाल, कविताई नई चाल कहैं,
नंदलाल हाल तत्काल कहैं, दो दिन का रैन बसेरा।।
</poem>
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