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|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"
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पिया पिया कह मुझको भी पपिहरी बुलाती कोई,
मेरे हित भी मृग-नयनी निज सेज सजाती कोई,
निरख मुझे भी थिरक उठा करता मन-मोर किसी का,
श्याम-संदेशा मुझसे भी राधा मँगवाती कोई,
किसी माँग का मोती बनता ढल मेरा भी आँसू,
मैं भी बनता दर्द किसी कवि कालिदास के मन का।
यदि मैं होता घन सावन का॥
पिया पिया कह मुझको भी पपिहरी बुलाती कोई,<br>मेरे हित भी मृग-नयनी निज सेज सजाती कोई,<br>निरख मुझे भी थिरक उठा करता मन-मोर किसी का,<br>श्याम-संदेशा मुझसे भी राधा मँगवाती कोई,<br>किसी माँग का मोती बनता ढल मेरा भी आँसू,<br>मैं भी बनता दर्द किसी कवि कालिदास के मन का।<br>यदि मैं होता घन सावन का॥<br>आगे आगे चलती मेरे ज्योति-परी इठलाती,<br>झांक कली के घूंघट से पीछे बहार मुस्काती,<br>पवन चढ़ाता फूल, बजाता सागर शंख विजय का,<br>तृषा तृषित जग की पथ पर निज पलकें पोंछ बिछाती,<br>झूम झूम निज मस्त कनखियों की मृदु अंगड़ाई से,<br>मुझे पिलाती मधुबाला मधु यौवन आकर्षण का।<br>यदि मैं होता घन सावन का ॥<br>प्रेम-हिंडोले डाल झुलाती मुझे शरीर जवानी,<br>गा गा मेघ-मल्हार सुनाती अपनी विरह कहानी,<br>किरन-कामिनी भर मुझको अरुणालिंगन में अपने,<br>अंकित करती भाल चूम चुम्बन की प्रथम निशानी,<br>अनिल बिठा निज चपल पंख पर मुझे वहाँले जाती,<br>खिलकर जहाँन मुरझाता है विरही फूल मिलन का।<br>यदि मैं होता घन सावन का॥<br>खेतों-खलिहानों में जाकर सोना मैं बरसाता,<br>मधुबन में बनकर बसंत मैं पातों में छिप जाता,<br>ढहा-बहाकर मन्दिर, मस्जिद, गिरजे और शिवाले,<br>ऊंची नीची विषम धरा को समतल सहज बनाता,<br>कोयल की बांसुरी बजाता आमों के झुरमुट में,<br>सुन जिसको शरमाता साँवरिया वृन्दावन का।<br>यदि मैं होता घन सावन का ॥<br>जीवन की दोपहरी मुझको छू छाया बन जाती,<br>साँझ किसी की सुधि बन प्यासी पलकों में लहराती,<br>द्वार द्वार पर, डगर डगर पर दीप चला जुगनू के,<br>सजल शरबती रात रूप की दीपावली मनाती,<br>सतरंगी साया में शीतल उतर प्रभात सुनहला<br>बनता कुन्द कटाक्ष कली की खुली धुली चितवन का।<br>यदि मैं होता घन सावन का ॥<br>बिहग-बाल के नरम परों में बन कँपन बसता मैं,<br>उरोभार सा अंग अंग पर मुग्धा के हँसता मैं,<br>मदिरालय में मँदिर नशा बन प्याले में ढल जाता,<br>बन अनंग-अंजन अलसाई आँकों में अंजता मैं,<br>स्वप्न नयन में, सिरहन तन में, मस्ती मन में बनकर,<br>अमर बनाता एक क्षुद्र क्षण मैं इस लघु जीवन का।<br>यदि मैं होता घन सावन का ॥<br>जब मैं जाता वहाँ जहाँ मेरी निष्ठुर वह सुन्दर,<br>साँझ-सितारा देख रही होगी बैठी निज छत पर,<br>पहले गरज घुमड़ भय बन मन में उसके छिप जाता,<br>फिर तरंग बन बहता तन में रिमझिम बरस बरस कर,<br>गोल कपोलों कर ढुलका कर प्रथम बूँद वर्षा की,<br>याद दिलाता मिलन-प्रात वह प्रथम प्रथम चुम्बन का।<br>
यदि मैं होता घन सावन का ॥
 
प्रेम-हिंडोले डाल झुलाती मुझे शरीर जवानी,
गा गा मेघ-मल्हार सुनाती अपनी विरह कहानी,
किरन-कामिनी भर मुझको अरुणालिंगन में अपने,
अंकित करती भाल चूम चुम्बन की प्रथम निशानी,
अनिल बिठा निज चपल पंख पर मुझे वहाँले जाती,
खिलकर जहाँन मुरझाता है विरही फूल मिलन का।
यदि मैं होता घन सावन का॥
 
खेतों-खलिहानों में जाकर सोना मैं बरसाता,
मधुबन में बनकर बसंत मैं पातों में छिप जाता,
ढहा-बहाकर मन्दिर, मस्जिद, गिरजे और शिवाले,
ऊंची नीची विषम धरा को समतल सहज बनाता,
कोयल की बांसुरी बजाता आमों के झुरमुट में,
सुन जिसको शरमाता साँवरिया वृन्दावन का।
यदि मैं होता घन सावन का ॥
 
जीवन की दोपहरी मुझको छू छाया बन जाती,
साँझ किसी की सुधि बन प्यासी पलकों में लहराती,
द्वार द्वार पर, डगर डगर पर दीप चला जुगनू के,
सजल शरबती रात रूप की दीपावली मनाती,
सतरंगी साया में शीतल उतर प्रभात सुनहला
बनता कुन्द कटाक्ष कली की खुली धुली चितवन का।
यदि मैं होता घन सावन का ॥
 
बिहग-बाल के नरम परों में बन कँपन बसता मैं,
उरोभार सा अंग अंग पर मुग्धा के हँसता मैं,
मदिरालय में मँदिर नशा बन प्याले में ढल जाता,
बन अनंग-अंजन अलसाई आँकों में अंजता मैं,
स्वप्न नयन में, सिरहन तन में, मस्ती मन में बनकर,
अमर बनाता एक क्षुद्र क्षण मैं इस लघु जीवन का।
यदि मैं होता घन सावन का ॥
 
जब मैं जाता वहाँ जहाँ मेरी निष्ठुर वह सुन्दर,
साँझ-सितारा देख रही होगी बैठी निज छत पर,
पहले गरज घुमड़ भय बन मन में उसके छिप जाता,
फिर तरंग बन बहता तन में रिमझिम बरस बरस कर,
गोल कपोलों कर ढुलका कर प्रथम बूँद वर्षा की,
याद दिलाता मिलन-प्रात वह प्रथम प्रथम चुम्बन का।
यदि मैं होता घन सावन का ॥
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