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दामिनी / शैलजा सक्सेना

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<poem>
'''(दिल्ली के नृशंस बलात्कार के बाद, बलात्कारी की बहन का पत्र )'''
 
भैया,
क्या कभी सोचा था
कि ऐसा दिन भी आएगा
कि तुम्हारा नाम आते ही हमारा सिर शर्म से गड़ जाएगा?
 
तुम्हारा दोष,
केवल तुम्हारा था
पर उम्र कैद मिली हम सबको,
मेरे मेंहदी भरे सपनों को,
माँ की आशीर्वादी आँखों को,
बाबूजी के आशा भरे कंधों को ।
 
तुम वो,
कोना कटी चिठ्ठी हो हमारे लिए,
जो धुँआती तो है मन में
पर उसकी बात ज़बान पर नहीं लाई जाती ।
 
वह लड़की रोज़ मेरे सपने में आती है
उसके आँसू बहने लगते हैं मेरी आँखों से,
उसकी चीखें फँस जाती हैं मेरे गले में
उसका शरीर हो जाता है मेरा शरीर।
 
शायद माँ-बाबूजी को भी यह स्वप्न आता है
तभी तो बहुत रात गए हमारे घर में रोज़
कोई चीख कर रोता है, चिल्लाता है,
क्या तुम को भी कोई सपना आता है?
क्या तुम भी कोई सपना देखते हो, भैया??
</poem>