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09:17, 26 अगस्त 2018 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
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<poem>
हम ठहरे गाँव के
लाल हुए धूप में
पाँव जले छाँव के
हम ठहरे गाँव के
हींसे में भूख-प्यास
लिये हुए मरी आस
भटक रहे जन्म से
न कोई आसपास
नदी रही और की
लट्ठ हुए नाव के
हम ठहरे गाँव के
पानी बिन कूप हुए
दुविधा के भूप हुए
छाँट रही गृहणी भी
इतना विद्रूप हुए
टिके हुए आश में
हाथ लगे दाँव के
हम ठहरे गाँव के
याचना के द्वार थे
सामने त्यौहार थे
जहाँ भी उम्मीद थी
लोग तार-तार थे
हार नहीं मानें हम
आदमी तनाव के
हम ठहरे गाँव के
</poem>