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|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
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ठोंके निर्मम खुराफात की
सिर पर गहरी कील
खारा पानी लेकर आईं
आँखों वाली झील

ज़हर उतारा गया हमारे
पुनः कण्ठ के नीचे
नील पड़े सच डर के मारे
खड़े झूठ के पीछे
लौट रही बारूद जेल से
धरे हाथ कंदील

ऐसा जुल्म छद्म के हाथों
करते रोज़ नया
खेले खेल नज़र से देखे
सहमी हुई बया
नागनाथ से सांप छुड़ाने
झपटी फिर से चील

उभरे हुये सुराग पकड़कर
देने चला गवाही
नहीं बुझेगी भीतर बाहर
धधकी आग तबाही
मैंने उखड़े पाँव जमाये
पत्थर जैसे मील

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