भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
पुनः विलीन होने लगी हूँ... ...
जहाँ तुम थे, मैं थी और थे
कुछ पुश्प पुष्प चम्पा के
मुझे ज्ञात नहीं ये पथ
तुम तक जाएगा या कि नहीनहीं
किन्तु मैं चलती जा रही हूँ
कदाचित् तुम
कुछ स्वच्छ स्मृतियाँ
देह में सिहरन भरती पवन
कुछ पुश्प पुष्प चम्पा के
जो तुमने मेरी हथेली पर रख कर
मुट्ठी बन्द कर दिया था
उतरेगा गहन अँधेरा
तब मैं खोलूँगी अपनी बन्द मुट्ठी
चम्पा के श्वेत पुश्पों पुष्पों से निकलते
प्रकाश पुन्ज में
तलाश लूंगी अपना पथ