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16:23, 2 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=नज़ीर बनारसी
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<poem>
ये राह-ए-मोहब्बत है इसमें ऐसे भी मक़ाम आ जाते हैं
रुकिए तो पसीना आता है चलिये तो क़दम थर्राते हैं
नब्ज़ें हैं के उभरी आती हैं तारे हैं के डूबे जाते हैं
वो पिछले पहर बीमारों पर कुछ ख़ास करम फ़रमाते हैं
वो मस्त हवाओं के झोंके कुछ रात गए कुछ रात रहे
जैसे ये कोई रह रह के कहे घबराओ नहीं हम आते हैं
शबनम की नुमाइश माथे पर खिलती हुई कलियाँ होंठों पर
गुलशन में सवेरा होता है या बज़्म में वो शरमाते हैं
ये राह-ए-तलब हैं दीवाने इस राह में उनकी जानिब से
आँखें भी बिछाई जाती हैं काँटे भी बिछाए जाते हैं
कहते नहीं बनता क्या कहिये कैसा है 'नज़ीर' अफ़साना-ए-ग़म
सुनने पे तो वो आमादा हैं कहने से हम ही घबराते हैं
</poem>