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<poem>

एक दीवाने को ये आए हैं समझाने कई
पहले मैं दीवाना था और अब हैं दीवाने कई

मुझको चुप रहना पड़ा बस आप का मुँह देखकर
वरना महफ़िल में थे मेरे जाने पहचाने कई

एक ही पत्थर लगे है हर इबादतगाह में
गढ़ लिये हैं एक ही बुत के सबने अफ़साने कई

मैं वो काशी का मुसलमाँ हूँ के जिसको ऐ ‘नज़ीर’
अपने घेरे में लिये रहते हैं बुतख़ाने कई

</poem>
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