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|संग्रह = खूँटियों पर टँगे लोग / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
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कुछ धुआँ
 
कुछ लपटें
 
कुछ कोयले
 
कुछ राख छोड़ता
 
चूल्हे में लकड़ी की तरह मैं जल रहा हूँ,
मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!
मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!  हरे —भरे -भरे जंगल की 
जिसमें मैं सम्पूर्ण खड़ा था
 
चिड़ियाँ मुझ पर बैठ चहचहाती थीं
 
धामिन मुझ से लिपटी रहती थी
 और गुलदार उछलकर मुझ पर बैठ जाता था.  
जँगल की याद
 
अब उन कुल्हाड़ियों की याद रह गयी है
 
जो मुझ पर चली थीं
 
उन आरों की जिन्होंने
 मेरे टुकड़े—टुकड़े टुकड़े-टुकड़े किये थे मेरी सम्पूर्णता मुझसे छीन ली थी !
चूल्हे में
 
लकड़ी की तरह अब मैं जल रहा हूँ
 
बिना यह जाने कि जो हाँडी चढ़ी है
 
उसकी खुदबुद झूठी है
 
या उससे किसी का पेट भरेगा
 
आत्मा तृप्त होगी,
 
बिना यह जाने
 
कि जो चेहरे मेरे सामने हैं
 
वे मेरी आँच से
 
तमतमा रहे हैं
 
या गुस्से से,
 
वे मुझे उठा कर् चल पड़ेंगे
 या मुझ पर पानी डाल सो जायेंगे.  मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!  एक—एक एक-एक चिनगारी 
झरती पत्तियाँ हैं
 
जिनसे अब भी मैं चूम लेना चाहता हूँ
 
इस धरती को
 जिसमें मेरी जड़ें थीं!</poem>
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