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{{KKRachna
|रचनाकार=निशाकर
|अनुवादक=
|संग्रह=गंग नहौन / निशाकर
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<poem>
अहल भोरे
भजन गबैत
गंगा घाट दिस जाइत
गंग नहौन सभकें बुझल नहि होइत छै
अपन गानक वेदना
गीतमे समाहित समुद्रक गहिराइ
ओकरा देखाइछ
मात्र गामक बाट
गामसँ गंगाक घाट।
ओ नपैत अछि
आ नुकाबऽ चाहैत अछि
अपन दुख
अपन वेदना
ठोर पर भजनक पाँति उतारि
बाबासँ पोता धरि
बाबीसँ पोती धरि
नानासँ नाति धरि
नानीसँ नातिन धरि
सासुसँ पुतौहु धरि
गंग नहौन।
मुदा
गंग नहौन सभक गीत सुननिहारक
घाओ
गहींर होइत जाइत अछि।
</poem>