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|रचनाकार=प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
|अनुवादक=
|संग्रह=तुमने कहा था / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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<poem>
हम उन की बज़्मे-नाज़ में मुख्तार भी नहीं
मुख्तार दर किनार वहां बार भी नहीं

ये कौन सा मक़ामे-महब्बत है हमनशीं
ये क्या कि दिल में ख्वाहिशे-दीदार भी नहीं

मुझसे ख़ुदा के वास्ते नज़रें न फेरिये
मुझ बद नसीब कक कोई ग़मख़ार भी नहीं

वैसे तो ज़िन्दगी का बिताना मुहाल है
वो पास हों तो बात ये दुश्वार भी नहीं

शब हो चुकी तमाम वो आये नहीं अभी
अंजान उनके आने के आसार भी नहीं।

</poem>
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