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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
मैं सुस्त गाम हूँ रस्ता मगर ज़ियादा नहीं
वो सामने है मेरा घर सफ़र ज़ियादा नहीं

हवा के ज़ोर से क्या जाने कब बिख़र जाऊं
है मेरा पेड़ से रिश्ता मगर ज़ियादा नहीं

न जाने कब से है इस दिल में भीगने की हवस
कोई हो रुत मुझे बारिश का डर ज़ियादा नहीं

मुझे यकीन है मंज़र कभी तो बदलेगा
हरेक सम्त हैं बादल मगर ज़ियादा नहीं

उड़ा के ले गया खुशियां मेरी सभी जो शख्स
मैं जानता तो हूँ उसको मगर ज़ियादा नहीं

मेरे मिज़ाज में शामिल है तितलियों की सरिश्त
किसी भी फूल पे मेर्क नज़र ज़ियादा नहीं

उजड़ते शहर को छोडूं तो फिर कहां जाऊं
किसी भी बस्ती में सुनते हैं घर ज़ियादा नहीं।

</poem>
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