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03:06, 29 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मेहर गेरा
|अनुवादक=
|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
}}
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<poem>
खुली हवा में ज़रा चंद गाम चल तो सही
तू बामो-दर की हदों से ज़रा निकल तो सही
ये दायरे तेरी नश्वो-नुमा में हाइल हैं
ज़रा तू सोच बदल क़ैद से निकल तो सही
गंवा न जान युंही मंज़िलों के चक्कर में
सफ़र का लुत्फ उठा ज़ाविया बदल तो सही
कहीं वजूद ही मेरा न इसमें खो जाये
बड़ा हुजूम है इस शहर से निकल तो सही
हवा लिबास उड़ाते हुए ये कहती है
क़दम उखड़ने लगे हैं तिरे संभल तो सही।
</poem>