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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
दिन ढलते ही जब हर छत से हर आंगन से चले उजाले
उम्मीदों की किरनें बनकर मेरे दिल में पले उजाले

तेरे रूप ने सूरज की किरनों को भी रूमान सिखाया
तेरे जिस्म को छूने वाले हैं कितने मनचले उजाले

दर से, रोजन से, खिड़की से, मेरे कमरे में आ पहुंचे
ये कुछ मेरे दर्द को समझें, हैं शायद दिलजले उजाले

पौ फटते ही आ जाते हैं चुपके से ये मेरे घर में
मेरा दर्द बटानेवाले हैं कितने ये भले उजाले

अपना भेद यही जाने हैं, अपने की खुद पहचान हैं
जाने किस दुनिया से आये, किस दुनिया को चले उजाले।
</poem>
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