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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
आंगन में रौशनी की झमक बेहिसाब है
इस घर के आस पास कोई आफताब है

अब्रे-रवां ने सारी तपिश को बुझा दिया
लेकिन ज़मीं में फिर भी वही पेचो-ताब है

मैंने बग़ौर जिसको पढ़ा था वरक़ वरक़
क्यों बन्द आज मेरे लिए वो किताब है

ख़ुशबू रची बसी है हवाओं में आजकल
ये तेरा कुर्ब है कि मिरा दिल का ख़्वाब है
</poem>
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