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03:09, 29 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मेहर गेरा
|अनुवादक=
|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
}}
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<poem>
जंगल में जिस तरफ भी गया, थे ग़मों के पेड़
अहसासकुश ज़मीं पे उगे हादसों के पेड़
दिल इनके साये में भी बड़े लुत्फ ले रहा
उगते रहे हैं ज़ेहन में गो उलझनों के पेड़
फिर फूल मुस्कुराने लगे रुत बदल गई
फिर सर-ज़मीने-दिल में उगे ख्वाहिशों के पेड़
पत्तों को आके कोई छुए शोख़ तोड़ ले
ये बात सोचते तो हैं शायद बनों के पेड़।
</poem>